शीतल जैसे नीर है, धरती जैसे धीर है
पुरवाई सी नर्म है, सूरज सी गरम है
कभी तन्हाइयों का मेला है, कभी सितारों मैं चाँद अकेला है
कहीं ये आप खुदा है, कहीं यह उससे भी जुदा है
ये मर्ज़ भी है मर्ज़ की दवा भी
यह दर्द भी है दर्द की दुआ भी
और क्या कहूँ की इश्क क्या है
ये वोही जाने जिसे इश्क हुआ है कभी
Monday, September 14, 2009
आज फ़िर एक चाह उठी है ....
फ़िर से जिऊ यह उमंग जगी है...
साँस लूँ मैं यह फ़िर से जी करता है...
दिल धड़कने को तड़पा करता है...
जीवन के सफर में दौड़ लगाऊ फ़िर मन करता है...
पर क्या करुँ एक डर सा लगता है...
फ़िर से कहीं गिर न जाऊं...
अबके गिरा तो उठ न पाऊंगा...
ठोकर लगी तो संभल न पाउँगा...
दिल जो टूटा तो जी न पाऊंगा...
यही सोच कर थम जाता हू मैं...
साँस लेते लेते ठहर जाता हू मैं...
उठते हुए कदम रोक लेता हू मैं...
फ़िर से जिऊ यह उमंग जगी है...
साँस लूँ मैं यह फ़िर से जी करता है...
दिल धड़कने को तड़पा करता है...
जीवन के सफर में दौड़ लगाऊ फ़िर मन करता है...
पर क्या करुँ एक डर सा लगता है...
फ़िर से कहीं गिर न जाऊं...
अबके गिरा तो उठ न पाऊंगा...
ठोकर लगी तो संभल न पाउँगा...
दिल जो टूटा तो जी न पाऊंगा...
यही सोच कर थम जाता हू मैं...
साँस लेते लेते ठहर जाता हू मैं...
उठते हुए कदम रोक लेता हू मैं...
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