Monday, September 14, 2009

इश्क

शीतल जैसे नीर है, धरती जैसे धीर है
पुरवाई सी नर्म है, सूरज सी गरम है
कभी तन्हाइयों का मेला है, कभी सितारों मैं चाँद अकेला है
कहीं ये आप खुदा है, कहीं यह उससे भी जुदा है
ये मर्ज़ भी है मर्ज़ की दवा भी
यह दर्द भी है दर्द की दुआ भी
और क्या कहूँ की इश्क क्या है
ये वोही जाने जिसे इश्क हुआ है कभी
उसने देखि ही नही लकीरें अपने हाथों की
हलकी ही सही एक लकीर मेरे भी नाम की है
उनकी एक आह पर ज़माने ने सिसकियाँ भरी
एक हम हैं जो अपना जनाजा ख़ुद ही उठाये जा रहे हैं|
आज फ़िर एक चाह उठी है ....
फ़िर से जिऊ यह उमंग जगी है...
साँस लूँ मैं यह फ़िर से जी करता है...
दिल धड़कने को तड़पा करता है...
जीवन के सफर में दौड़ लगाऊ फ़िर मन करता है...
पर क्या करुँ एक डर सा लगता है...
फ़िर से कहीं गिर न जाऊं...
अबके गिरा तो उठ न पाऊंगा...
ठोकर लगी तो संभल न पाउँगा...
दिल जो टूटा तो जी न पाऊंगा...
यही सोच कर थम जाता हू मैं...
साँस लेते लेते ठहर जाता हू मैं...
उठते हुए कदम रोक लेता हू मैं...

Sunday, July 19, 2009

सोने की आरजू में....

आँखें जो बंद करी हमने...

ख्वाब चुपके से आए ....

और नींद चुरा कर चले गए...

Friday, June 26, 2009

जब भी सोचता हूँ यही सवाल उभर आते हैं क्यूँ ?

सांस लेने भर का नाम ही जीना नहीं है क्यूँ ?

एक तेरे गम का नाम ही मरना नहीं है क्यूँ?

कहने को कई गम हैं लेकिन हर गम की घुटन अलग है क्यूँ?

हैं तो सब कांटे, पर हर कांटे की चुभन अलग है क्यूँ?

दर्द तो है कई पर मेरे लिए कोई दामन नहीं है क्यूँ?

आँखें कई हैं लेकिन मेरे लिए कोई नम नहीं है क्यूँ?

रिश्तों की भीड़ मैं कोई अपना नहीं है क्यूँ?

रात तो सभी हैं, हर रात का आसमा अलग है क्यूँ?

नाम एक है हर रिश्ते का मर्म अलग है क्यूँ?